करोड़ों के डाक टिकट


दुनिया में कुछ ऐसे दुर्लभ डाक टिकट है, जिनकी कीमत आज एक रुपये से लेकर करोड़ों तक में है! कैसे-कैसे है ये डाक टिकट..? बता रही है सीमा झा
ई-मेल और एसएमएस के दौर में डाक टिकटों की जरूरत भले ही कम हो गई हो, लेकिन उनका महत्व नहीं घटा है। डाक टिकट में दर्ज होती है हमारी राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान। पुराने डाक टिकट बन जाते हैं हमारी विरासत, जिनकी बोली लगती है लाखों-करोड़ों में। ऐसे ही कुछ डाक टिकट दिल्ली में शुरू हो रही अंतरराष्ट्रीय डाक टिकट प्रदर्शनी में दिखाए जाएंगे।
हवाईयन मिशनरीज
ये हैं हवाई साम्राज्य के पहले डाक टिकट। इनकी छपाई हुई थी वर्ष 1951 में। वह भी काफी पतले कागज पर। इसलिए इनकी गुणवत्ता बेहद खराब है। आज कुछ ही टिकट सुरक्षित बचे हैं। इनमें से एक जो उपयोग में नहीं आ सका था, वह बिका था तकरीबन 7 लाख 60 हजार डॉलर में।
मॉरीशस के डाक टिकट
ये हैं मॉरीशस के पहले दो डाक टिकट। इनमें से एक डाक टिकट जारी होने के बाद उपयोग में नहीं आ पाया। 1993 में डेविड फेल्डमैन ने इन टिकटों की नीलामी की। इनमें से पहला नारंगी रंग वाला डाक टिकट बिका था तकरीबन 1 लाख 72 हजार 260 डॉलर में, वहीं दूसरे टिकट को बेचा गया 1 लाख 48 हजार, 850 डॉलर में।
द इनवर्टेड जेनी
यह डाक टिकट अमेरिका का है। गलत ढंग से छपाई होने की वजह से इस टिकट को दुर्लभ के साथ-साथ बेहद मूल्यवान भी माना जाता है। जब-जब भी इसकी नीलामी हुई, तो बोली लाखों डॉलर में लगी। जैसे 2005 के अक्टूबर माह में इसकी ढाई लाख डॉलर की बोली लगी, तो नवंबर 2007 में यह 977 लाख डॉलर से भी ज्यादा में बिका।
द पेनी ब्लैक
यह ब्रिटेन का डाक टिकट है। दुनिया का ऐसा पहला डाक टिकट, जिसे चिपकाया जा सकता था। यह 1 मई, 1840 में जारी हुआ था। यह अन्य डाक टिकटों की तरह दुर्लभ तो नहीं, पर मूल्यवान जरूर है। जो टिकट अभी इस्तेमाल में नहीं लाया गया, उसकी वर्तमान कीमत है तकरीबन 3 हजार डॉलर।
द थ्री स्कीलिंग येलो
यह डाक टिकट है स्वीडन का। इसे वर्ष 1855 में छापा गया। नाम के अनुरूप इसका रंग पीला है। आज केवल एक डाक टिकट ही बचा है। इसकी वर्तमान कीमत है तकरीबन 11.6 करोड़ रुपये। यह टिकट भी दिल्ली में होने वाली अंतरराष्ट्रीय डाक टिकट प्रदर्शनी में दिखाया जाएगा।
गुयाना का टिकट
यह है ब्रिटिश उपनिवेश गुयाना का डाक टिकट। इसकी छपाई में काफी घटिया किस्म के कागज का इस्तेमाल हुआ। मैजेंटा रंग पर काले रंग का यह डाक टिकट भी है बेहद दुर्लभ। वर्ष 1980 में जब इसकी नीलामी हुई थी, तब इसकी बोली लगी 9 लाख 35 हजार डॉलर की।
अपनी फोटो वाले टिकट
भारतीय डाक विभाग की सीजीएम कावेरी बनर्जी कहती है कि अमेरिका और इंग्लैंड में अपनी फोटो डाक टिकट पर छपवाने की लोकप्रिय योजना स्माइली की तरह भारत में भी पहल की जा रही है। इसके तहत महज 10 मिनट में कोई भी व्यक्ति अपनी फोटो डाक टिकट पर छपवा सकेगा। शुल्क देना होगा 150 रुपये।
* पश्चिम बगाल के नदिया जिले के निवासी मनोज कुमार मंडल ने एक पार्सल में सबसे ज्यादा डाक टिकटों का इस्तेमाल कर 'गिनीज बुक ऑफ व‌र्ल्ड रिकॉ‌र्ड्स' में अपना नाम दर्ज कराया है।
* ब्रिटेन की महिलाओं में अपनी रानी विक्टोरिया के चित्रवाले डाक टिकट एकत्र करने का जुनून था। वे ही बनी डाक टिकट संग्रह करने वाले शौक की जननी।
* इंग्लैंड में वर्ष 1840 में डाक-टिकट बेचने की व्यवस्था शुरू की गई। 1840 में ही सबसे पहले जगह-जगह लेटर-बॉक्स भी टांगे जाने लगे।
* डाक-टिकट का इतिहास तकरीबन 171 साल पुराना है। विश्व का पहला डाक टिकट 1 मई 1840 को ग्रेट ब्रिटेन में जारी किया गया।
* भारत में पहला डाक-टिकट 1 जुलाई, 1852 को सिध प्रात में जारी किया गया, जो केवल उसी प्रात में उपयोग के लिए सीमित था। ये एशिया के पहले डाक-टिकट तो थे ही, विश्व के पहले गोलाकार डाक टिकट भी थे।
* महात्मा गांधी दुनिया के अकेले ऐसे शख्स हैं, जिन्हें विश्व के 80 देशों ने अपने डाक टिकट पर जगह दी। अब तक 250 से ज्यादा डाक टिकट बापू के नाम से जारी किए जा चुके हैं।
संग्रह के शौक ने बनाए मित्र
डाक-टिकटों का सग्रह विश्व की सबसे लोकप्रिय रुचियों में से एक है। इसके द्वारा प्राप्त ज्ञान हमें मनोरंजन के माध्यम से मिलता है, इसलिए यह है शिक्षा का मनोरंजक साधन। डाक-टिकट सग्रह का शौक हर उम्र के लोगों में रहा है। बचपन में ज्ञान एव मनोरंजन, वयस्कों में आनद और तनावमुक्ति तथा बड़ी उम्र में दिमाग को सक्रियता प्रदान करने वाला इससे रोचक कोई शौक नहीं। 1940-50 तक डाक-टिकटों के शौक ने देश-विदेश के लोगों को मिलाना शुरू कर दिया था। टिकट इकट्ठा करने के लिए लोग पत्र-मित्र बनाते थे, अपने देश के डाक-टिकटों को दूसरे देश के मित्रों को भेजते थे और दूसरे देश के डाक टिकट मंगवाते थे। पत्र-मित्रता के इस शौक से डाक-टिकटों का आदान-प्रदान तो होता ही था, लोग विभिन्न देशों के विषय में अनेक ऐसी नई-नई बातें भी जानते थे, जो किताबों में नहीं लिखी होती थीं।

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